सताते है वोह मुझे करके बहाना |
आना ही नहीं, या हाँ कह कर मुकर जाना ||
ऐसा होता है सदियों में कभी ही कभी |
आसाँ नहीं यूँ किसी का किसी पर दिल आ जाना ||
तेरे सारे खुदा मगरूर है मेरी इबादत से |
बस एक वही है जिनको आता नहीं जताना ||
जबाब देता नहीं, और सुनता भी नहीं |
ऐसे खुदा को तू पत्थर से बनाना ||
वोह हिम्मत भी नहीं उस मगरूर दिल मैं |
की कह दे, आता नहीं हमें रिश्ता निभाना ||
दिल भर गया तेरे इस जहाँ से ए 'सुमित' |
जो मैं सो जाऊं, तो मुझे यहाँ से ले जाना ||
Friday, November 11, 2011
Thursday, August 21, 2008
सुबह-ऐ-आज़ादी (अगस्त, 1947) - फैज़ अहमद फैज़
ये दाग दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर
वो इंतज़ार था जीस का, ये वो सहर तो नही
वो सहर तो नहीं जीस की आरजू लेकर
चले थे यार के मील जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दस्त में तारों की आखरी मंजील
कहीं तो होगा शब-ऐ-सुस्त मौज का साहील
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ऐ-गम-ऐ-दील
जवान लहू की पुर-असरार शाहराहों में
चले जो यार तो दामन पे कीताने दाग पडे
दयार-ऐ-हुस्न के बे-सब्र ख्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अजीज थी लेकीन रुख-ऐ-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीनां-ऐ-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फीराक-ऐ-ज़ुल्मत-ऐ-नूर
सुना है हो भी चुका है वीसाल-ऐ-मंजील-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ऐ-दर्द का दस्तूर
नीशात-ऐ-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ऐ-हीज्र-ऐ-हराम
जीगर की आग, नज़र की उमंग, दील की जलन
कीसी पे चारा-ऐ-हीजरान का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई नीगार-ऐ-सबा, कीधर को गई
अभी चीराग-ऐ-सर-ऐ-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीद-ओ-दील की घड़ी नहीं आई
चले चलो के वो मंजील अभी नहीं आई
Believe
यह मत सुन की वो क्या कहता है |
उसके कदमो की तरफ़ देख, वो किधर जाता है ||
मत सोच कि यह सफर कितना कठिन है |
दो कदम चल कर तो देख, यह रास्ता किधर जाता है ||
कोशिश करने वाले ही सफल होते है |
ऐसे बन्दों से मिलने खुदा चल कर आता है ||
सामने बैठा को ग़ालिब तो यह मत सोचना |
इसके सामने मुझे क्या आता है ||
शाम ढली हो उम्र की, और रास्ता अनजान हो |
बढ़ा कदम आगे, कोशिश करने मैं क्या जाता है ||
कुछ ऐसा कर की नाम रह जाए जहाँ मैं |
कुछ ही होते हैं, जिन्हें यहाँ याद किया जाता है ||
खुदा अपने सभी बन्दों को |
एक नगीना दे कर यहाँ लता है ||
चलो चल कर देखे उस रस्ते पर भी |
जहाँ जाने से हर आदमी घबराता है ||
यह कौन सा नूर है तेरे चेहरे पर 'सुमित' |
जो हर गम को खुशी मैं बदल जाता है ||
उसके कदमो की तरफ़ देख, वो किधर जाता है ||
मत सोच कि यह सफर कितना कठिन है |
दो कदम चल कर तो देख, यह रास्ता किधर जाता है ||
कोशिश करने वाले ही सफल होते है |
ऐसे बन्दों से मिलने खुदा चल कर आता है ||
सामने बैठा को ग़ालिब तो यह मत सोचना |
इसके सामने मुझे क्या आता है ||
शाम ढली हो उम्र की, और रास्ता अनजान हो |
बढ़ा कदम आगे, कोशिश करने मैं क्या जाता है ||
कुछ ऐसा कर की नाम रह जाए जहाँ मैं |
कुछ ही होते हैं, जिन्हें यहाँ याद किया जाता है ||
खुदा अपने सभी बन्दों को |
एक नगीना दे कर यहाँ लता है ||
चलो चल कर देखे उस रस्ते पर भी |
जहाँ जाने से हर आदमी घबराता है ||
यह कौन सा नूर है तेरे चेहरे पर 'सुमित' |
जो हर गम को खुशी मैं बदल जाता है ||
कभी कभी
कभी रस्ते मैं मिल जाओ तो कतरा कर गुज़र जाना |
हमें इस तरह तकना जैसे पहचाना नही तुमनें ||
हमारा ज़िक्र जब आए तो यूँ अंजान बन जाना |
कि जैसे नाम सुन कर भी हमें जाना नहीं तुमने ||
हमें इस तरह तकना जैसे पहचाना नही तुमनें ||
हमारा ज़िक्र जब आए तो यूँ अंजान बन जाना |
कि जैसे नाम सुन कर भी हमें जाना नहीं तुमने ||
एक नज़र
इसी उम्मीद मैं उस रस्ते से रोज गुजरता हूँ |
की शायद वोह छत पर, बाल सुखाते हुए नज़र आ जाए ||
रोज करता हूँ खवाबों मैं दीदार उसका |
काश, यह जागती आखों के सपने हकीकत बन जाए ||
सुबह की जिंदगी हो क्या पता कड़कती धूप का |
जो शाम से गले मिले तो रात हो जाए ||
वो क्या सलार बनेगा हमारा जो ख़ुद |
दो कदम चले तो घुटनों मैं बल पड़ जाए ||
खुदा करे की एक दिन ऐसा भी हो |
मैं लेटूं और मुझे नीद आ जाए ||
यह दुआ गर गुनाह है तो भी कबूल हो |
तेरी झलक के बाद चाहे दोजग भी मिल जाए |
दोस्त तो बहुत मिले दुनिया मैं हमें 'सुमित' |
गर तू मिले तो खुदा मिल जाए ||
की शायद वोह छत पर, बाल सुखाते हुए नज़र आ जाए ||
रोज करता हूँ खवाबों मैं दीदार उसका |
काश, यह जागती आखों के सपने हकीकत बन जाए ||
सुबह की जिंदगी हो क्या पता कड़कती धूप का |
जो शाम से गले मिले तो रात हो जाए ||
वो क्या सलार बनेगा हमारा जो ख़ुद |
दो कदम चले तो घुटनों मैं बल पड़ जाए ||
खुदा करे की एक दिन ऐसा भी हो |
मैं लेटूं और मुझे नीद आ जाए ||
यह दुआ गर गुनाह है तो भी कबूल हो |
तेरी झलक के बाद चाहे दोजग भी मिल जाए |
दोस्त तो बहुत मिले दुनिया मैं हमें 'सुमित' |
गर तू मिले तो खुदा मिल जाए ||
Sunday, April 27, 2008
कुछ देर फीर पास आए
--- एक चेहरा --
एक चहेरे की मासूमियत पर नीसार हो गए |
गम-ऐ-दील मैं कुछ खुसी मिलती चली गई ||
गुज़र गए गली-ऐ-आशीक से वो कभी |
सासों मैं एक मिठास घुलती चली गई ||
बेपर्दा इस कदर वो कभी न थे |
जाने क्यों आज हया घटती चली गई ||
चले आए जनाजे-ऐ-आशीक पर वह भी |
इस आस मैं कुछ सासे अटकी रह गई ||
कल सुबह तुम्हे देखा रास्ते में कुछ दूर से आते हुए |
कुछ देर फीर पास आए ... फीर दूरीयाँ बदती चली गई ||
कुछ लोग सहर मैं हमसे यूं ही खफा है
कुछ लोग सहर मैं हमसे यूं ही खफा है |
हर कीसी से अपनी भी तबीयत नही मीलती ||
जो मील गए रास्ते मैं तो याद कर नादानीया |
सर झुक जाता है उनका और नज़र नही मीलती ||
कहते है शाम की तन्हाईयों मैं याद गहराती है |
यह वह शाम है जीसकी सुबह नही मीलती ||
यह दुनीयाँ एक धोखा है सोच के कदम रखना 'सुमीत' |
यह वो तीलीस्म है जीसमे फुरसत-ऐ-दुआ नही मीलती ||
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