Thursday, August 21, 2008

सुबह-ऐ-आज़ादी (अगस्त, 1947) - फैज़ अहमद फैज़



ये दाग दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर
वो इंतज़ार था जीस का, ये वो सहर तो नही
वो सहर तो नहीं जीस की आरजू लेकर
चले थे यार के मील जायेगी कहीं कहीं
फलक के दस्त में तारों की आखरी मंजील
कहीं तो होगा शब--सुस्त मौज का साहील
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना--गम--दील

जवान लहू की पुर-असरार शाहराहों में
चले जो यार तो दामन पे कीताने दाग पडे

दयार--हुस्न के बे-सब्र ख्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अजीज थी लेकीन रुख--सहर की लगन
बहुत करीं था हसीनां--नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फीराक--ज़ुल्मत--नूर
सुना है हो भी चुका है वीसाल--मंजील--गाम
बदल चुका है बहुत अहल--दर्द का दस्तूर
नीशात--वस्ल हलाल--अजाब--हीज्र--हराम
जीगर की आग, नज़र की उमंग, दील की जलन
कीसी पे चारा--हीजरान का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई नीगार--सबा, कीधर को गई
अभी चीराग--सर--रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानी--शब में कमी नहीं आई
नजात--दीद--दील की घड़ी नहीं आई
चले चलो के वो मंजील अभी नहीं आई

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