Thursday, January 10, 2008

वो थका हुआ मेरी बाहों मैं ज़रा सो गया ....


वो थका हुआ मेरी बाहों मैं ज़रा सो गया तो क्या हुआ |

अभी मैंने देखा है चाँद भी कीसी शाख-ऐ-गुल पे झुका हुआ ||

जीसे ले गई है अभी हवा वो वरक था दील की कीताब का |
कहीं आंसुओं से मीटा हुआ, कहीं आंसुओं से लीखा हुआ ||

कई मीले रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई |
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खडा हुआ ||

मुझे हादसों से सजा सजा के बहुत हसीं बना दीया |
मेरा दील भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहंदीयों से रचा हुआ ||
वही ख़त के जीस पे जगह जगह दो महकते होंठो के चाँद थे |
किस्सी भूले-बीसरे से ताक पर तह-ऐ-गर्द होगा दबा हुआ ||

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लान भी |
मगर उस दरीचे से पूछना वो दरख्त अनार का क्या हुआ ||

मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरार की बीसात क्या |
यह चराग कोई चराग है न जला बुआ न बुझा हुआ ||

(बशीर बद्र द्वारा रचीत)

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